लोकगीत की परिभाषा, प्रकार, उत्पत्ति, विशेषता एवं महत्त्व

लोकगीत : देश में कितने गाने गाये जाते हैं जिनमें से कितने आज रिलीज होते हैं और कल पुराने हो जाते है पता ही नहीं चलता। वहीँ लोकगीत एक ऐसी गीत है जो कभी भी पुराने नहीं होती और नहीं इसे भुलाए जाते हैं।

वैसे इनकी रचना कोई खास व्यक्ति नहीं करता बल्कि इसे लोक भाषा में मनुष्यों द्वारा गाये जाते हैं। यह लोगों का मनोरंजन भी करते हैं और उनका दुख-सुख, रहन-सहन, संस्कार, धर्म, इतिहास, आदि को भी वयान करते हैं।

इस आर्टिकल में हमने न केवल लोकगीत की परिभाषा के बारे में बात की है बल्कि इसकी उत्पत्ति, प्रकार, विशेषता एवं महत्त्व के बारे में भी विस्तार से पूरी जानकारी दी है, जिसे अच्छे से जानने के लिए आपको हमारे साथ अंत तक बने रहना होगा।

लोकगीत की परिभाषा क्या है ?

लोकगीत - अर्थ , परिभाषा, प्रकार, उत्पत्ति, विशेषता एवं महत्त्व

लोकभाषा में लोक द्वारा रचित एवं लिखे गए गीतों को लोकगीत के नाम से जाना जाता है. इसे कोई एक व्यक्ति नहीं ब्लकि पूरा लोक समाज (स्थानीय लोग) अपनाता है.

लोकगीत हमारे समाज में प्राचीनकाल से लेकर आज तक निरन्तर चलती आ रही है. इसे होली, दिपावली, जन्म उत्सव, मुण्डन, पूजन, जनेऊ, विवाह, आदि अवसरों पर बड़े ही मधुर राग से गाये जाते हैं.

लोकगीत किसी देश की संस्कृति के संवाहक होते हैं. यानी उस देश की संस्कृति कैसी है उसका परिचय लोक साहित्य से प्राप्त हो जाता है. साथ ही यह स्थानीय मिट्टी के गुंजार भी होता है.

स्थानीय भाषा में लोक समाज के द्वारा गाये जाने वाले लोकगीतों में विभिन्न किस्म की ज्ञान, धर्म, इतिहास, रीति रिवाज, संस्कार आदि चीज़ों की झलक मिलती है.

जैसे : बारहमासा और कजरी, उत्तर प्रदेश के लोकगीत हैं. काजलिया और गोरबन्द, राजस्थान के लोकगीत है.

इसकी भाषा क्षेत्र के हिसाब से अलग अलग होती है जो वास्तव में उस क्षेत्र की स्थानीय भाषा (लोक भाषा) होती है जिसे पूरा लोक समाज बोलता है.

“लोकगीत (Lokgeet) दो शब्दों से मिलकर बना है : लोक और गीत, जिसका मतलब एंव अर्थ है लोक के गीत”

आमतौर पर, भारत में लोकगीत ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक गाया जाता है जैसे कि घर, गाँव और नगर. इसलिए इसे जनता के गीत भी कहते हैं. इसे गाने के लिए साधना की ज़रूरत नहीं होती है. इसे पढ़ने के बजाय सुनने से जल्दी सीखा जाता है.

लोकगीत के प्रकार

लोकगीत को मुख्य पांच भागों में विभाजित किया जा सकता है : संस्कार गीत, गाथा-गीत (लोकगाथा), पर्वगीत, पेशा गीत और जातीय गीत.

1. संस्कार गीत

लोक भाषा में जन्म उत्सव, मुण्डन, पूजन, जनेऊ, विवाह, आदि अवसरों पर गाए जाने वाले लोकगीत को संस्कार गीत कहते हैं.

जैसे : सोहर, खेलौनो, कोहबर, समुझ बनी, आदि.

2. गाथा-गीत (लोकगाथा)

विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित लोकगाथाओं पर आधारित लोक गीत को लोकगाथा या गाथा-गीत कहते हैं.

जैसे : आल्हा, ढोला, भरथरी, नरसी भगत, घन्नइया, नयका बंजारा, लोरिकायन, विजमैल, सलहेस, दीना भदरी, आदि.

3. पर्वगीत

लोक समाज के द्वारा विशेष पर्वों एवं त्योहारों पर गाये जाने वाले मांगलिक-गीतों को ‘पर्वगीत’ कहते है.

जैसे : राज्य में होली, दिपावली, छठ, तीज, जिउतिया, बहुरा, पीडि़या, गो-घन, रामनवमी, जन्माष्टमी, आदि अन्य शुभअवसरों पर गाये जाने वाले गीत पर्वगीत होते हैं.

4. पेशा गीत

देश के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों द्वारा अपना कार्य करते समय जो गीत गाते जाते हैं उन्हें पेशा गीत कहते हैं.

जैसे : ग्रामीण क्षेत्रों में गेहूं पीसते समय ‘जाँत-पिसाई’, खेत में सोहनी, रोपनी, छत की ढलाई करते समय ‘थपाई’ तथा छप्पर छाते समय ‘छवाई’, आदि. करते समय गाये जाने वाले गीत पेशा गीत कहलाते हैं.

5. जातीय गीत

ऐसे गीत जिसे समाज के विभिन्न क्षेत्रों की विशेष वर्गों द्वारा सुने और गाये जाते है, उन्हें जातीय गीत कहते हैं.

जैसे : झूमर, बिरहा, प्रभाती, निर्गुण, कहरवा, नौवा भक्कड, बंजारा, आदि.

लोकगीत की उत्पत्ति

लोकगीत की उत्पत्ति किसी खास व्यक्ति द्वारा नहीं बल्कि इसकी रचना प्रायः अज्ञात होती है. लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि कोई लोकगीत का निर्माता ही नहीं था.

कहते हैं लोकगीत की उत्पत्ति ‘देव योग’ से हुई है. ग्रामीण क्षेत्रों में लोकगीत की उत्पत्ति आमतौर पर लोग समाज के द्वारा ही किया जाता है.

जब इसे पूरे समाज, क्षेत्र या राज्य द्वारा गाया जाने लगता है तो इसकी रचना किसने की थी उसे धीरे धीरे भुला दिया जाता है. शायद इसलिए भारत के प्रचलित लोकभाषा में गीतों को अध्ययन करने पर यह मालूम करना मुश्किल होता है कि इसकी सृजन या उत्पत्ति सामूहिक विधि से हुई है.

जर्मनी के प्रसिद्ध लोक साहित्य विल्यप्रिय ने अपने सामूहिक उत्पत्ति सिद्धान्त में यह बताया कि लोकगीत का निर्माण सामूहिक रीति से हुआ है. लेकिन इसे कई लोक साहित्य के द्वारा खण्डन किया गया.

किसी भी देश में लोकगीत का उत्पत्ति कागज़ पर लिखकर, प्रकाशन, आदि जैसे आधुनिक उपकरणों से नहीं हुई हैं बल्कि इसे मौखिक रूप से किया है. इसलिए यह मौखिक परम्परा में जीवित रहते हैं और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक चलता रहता है.

लोकगीतों की विशेषता

  1. लोकगीत लोकभाषा में होती है और इसे लोक समाज के द्वारा गाया जाता है.
  2. इसकी रचना किसी व्यक्ति द्वारा नहीं बल्कि यह जन समुदाय के गीत होते हैं.
  3. इसलिए लोकगीतों का रचनाकार अज्ञात होता है.
  4. यह मौखिक परम्परा में जीवित रहते हैं और इसे पीढ़ी दर पीढ़ी अपनाए जाते हैं.
  5. लोकगीत लयबद्ध होता है तथा इसकी साधना भी नहीं की जाती है.
  6. इसे शिक्षित या अशिक्षित लोग आसानी से समझ जाते हैं.
  7. ज्यादातर लोकगीत को लोक समाज द्वारा एक ही धुन में गाए जाते हैं सिर्फ़ गीत के बोल बदलते हैं.
  8. इन गीतों के धुनों में सात शुद्ध स्वरों कोमल , गन्धार व कोमल निषाद का विशेष प्रयोग होता है.
  9. लोकगीत का बेशक लोगों को मनोरंजन प्रदान करते है और साथ ही उनका दुख-सुख, रहन-सहन, संस्कार, धर्म, इतिहास, आदि को भी वयान करते हैं.
  10. इसमें लोक क्षेत्रों के अनुसार अलग अलग वादियों का प्रयोग किया जाता है जैसे कि ढोलक, मंजीरा, चिमटा, झांझ, सारंगी, रावणहत्था, सिंगी, कमईयचा, खंजरी, आदि.
  11. कई लोकगीतों के साथ नृत्य भी किया जाता है जैसे कि झूमर, बिहू, गरबा, छपेली, आदि.
  12. इसमें मानव की सभ्यता तथा संस्कृति के साथ साथ उसके धर्म, इतिहास, रीति रिवाज, संस्कार आदि चीज़ों की झलक मिलती है.

लोकगीतों का महत्त्व

लोकगीत किसी भी देश के सभ्यता, संस्कृति और विचारों से हमें परिचय कराते हैं. लोक साहित्य के विकास के लिए इसका अत्यधिक लाभ पहुंचता है.

इससे हमारे देश के विभिन्न क्षेत्रों के रीति रिवाज, रहन- सहन, पर्व, धर्म, इतिहास, आदि की पहचान होती है, जिससे वर्तमान में काफ़ी चीजों में सुधार लाए जा सकते हैं.

कई मामलों में इन गीतों से वर्तमान के कवियों को अपनी रचना करने में काफ़ी मदद मिलती है. इन गीतों से हमें अपने साहित्य को सुदृढ़ करने का अवसर मिलता है.

इससे हमारे समाज, परिवार और रिश्तेदारों से संबंध, मेल-मिलाप, पवित्र स्नेह तथा गृहस्थ जीवन की समस्याओं आदि की जानकारी मिलती है.

साथ ही लोक समाज के इतिहास , घटनाओं , धार्मिक प्रवृत्तियों तथा तत्कालीन मनोभावों, आदि का भी जानकारी होती है.

इसलिए लोकगीत कभी पुराना नहीं होता और नहीं ही इसे भुलाया जा सकता है. इसे लोक समाज के नए पीढ़ी मौखिक परम्परा में जीवित रहते हैं और शायद इसलिए यह प्राचीन काल से आज तक भी लोक भाषा में गाया जाते आ रहा है.

लोकगीत से संबंधित FAQ

लोकगीत किसे कहते हैं ये कहाँ और कब गाये जाते हैं?

लोकगीत स्थानीय भाषा में लोगों द्वारा गाए जाने वाले गीत होते हैं. ये हमारे घर, गाँव और नगर के क्षेत्रों में लोक समाज द्वारा किसी त्योहारों और विशेष अवसरों पर गाए जाते हैं.

लोकगीत की भाषा कौन सी है?

लोकगीत की भाषा लोक भाषा यानी स्थानीय भाषा होती है इसलिए ये इतने आनंददायक और लोकप्रिय होते हैं.

भारत में कितने लोकगीत हैं और उनका नाम?

भारत में विभिन्न तरह के लोकगीत हैं जो लोक भाषा में किसी त्योहारों और विशेष अवसरों पर गाए जाते हैं जैसे कि बिहुगीत, लावणी, बाउल, नातूपुरा पाटू, ज़िलेन, कोली, भटियाली आदि.

सारांश

इस आर्टिकल में हमने आपको न केवल लोकगीत के बारे में बताया है बल्कि इसकी उत्पत्ति, प्रकार, विशेषता, एवं महत्त्व को भी समझाया है।

हम उम्मीद करते हैं आपकों लोकगीत से संबंधित सभी चीज़े समझ में आ गई होगी और इसे पढ़ कर आपकों बेहद अच्छा लगा होगा, जिसके लिए आप इस लेख को शेयर एवं कॉमेंट कर सकते है।

What do you think?

347 Points
Upvote

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *